सुख-सुविधाएं

 

 हर एक अपने सुखी होने की क्षमता को अपने अन्दर लिये रहता है, लेकिन मुझे विश्वास है कि जो यहां सुखी नहीं रह सकते वे कहीं भी सुखी नहीं रह सकते ।

 

१४ अप्रैल,१९३६

 

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 यहां रहते हुए लोगों को खुश रहना चाहिये, अन्यथा वे यहां के असाधारण अवसर का पूरा लाभ नहीं उठा सकते ।

 

 मैं हमेशा उन लोगों से मिलने और उन्हें सहायता देने में खुश होती हूं जो सामंजस्य और समाधान चाहते हैं और अपनी भूलें ठीक करने एवं प्रगति करने के लिए तैयार हैं । लेकिन मैं उन लोगों की कोई मदद नहीं कर सकती जो सारा दोष औरों पर थोप देते हैं, क्योंकि वे सत्य को देखने और उसके अनुसार कार्य करने में अकुशल होते हैं ।

 

   लेकिन यह कहने की जरूरत नहीं कि जो यहां हैं और यहां रहने के लिए कुछ कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार हैं? उनका हमेशा स्वागत होगा ।

 

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विश्वास के साथ तुम्हारा जो रूबगत किया गया था उसका उत्तर तुमने उद्धत और नासमझीभरी वृत्ति से दिया है । तुमने हर चीज को अज्ञानभरी धृष्ट नैतिकता की दृष्टि से जांचा हैं जिसने तुम्हें उस सहानुभूति से  कर दिया है जो तुम्हें सहज ही दी गयी थी और उन सबको दी जाती है जो यहां आध्यात्मिक जीवन की खोज में आते हैं । लेकिन यहां रहने का लाभ उठाने के लिए थोडी-सी मानसिक नम्रता और अन्तरात्मा की उदारता अनिवार्य है ।

 

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जो लोग यहां दुःखी हैं और यह अनुभव करते हैं कि उन्हें वह आराम नहीं मिलता जिसकी उन्हें जरूरत है, उन्हें यहां नहीं रहना चाहिये । हम जो कर रहे हैं उससे ज्यादा करने की स्थिति मे हम नहीं हैं, और आखिर हमारा उद्देश्य लोगों को आरामदेह जीवन देना नहीं है, बल्कि उन्हें ' भागवत जीवन ' के लिए तैयार करना है जो बिलकुल और ही बात है ।

 

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 निश्चय ही लोगों के यहां आने और ठहरने का कारण सुविधाएं और ऐश- आराम पाना नहीं है- अगर आदमी काफी भाग्यशाली हों तो ये चीजें कहीं भी मिल सकती हैं । लेकिन जो चीज यहां मिल सकती है, जो और किसी जगह नहीं मिल सकती, वह है ' भागवत प्रेम ', 'कृपा ' और ' देखभाल ' । जब यह बात भुला दौ जाती है या इसकी उपेक्षा की जाती है तभी लोग यहां दु :खी अनुभव करने लगते हैं । निश्चय ही जब कभी कोई दुःखी या असन्तुष्ट अनुभव करे, तो यह इस बात का निश्चित संकेत माना जा सकता हैं कि भगवान् जो कुछ हमेशा दे रहे हैं उसकी ओर से उसने मुंह मोड लिया है और वह सांसारिक संतुष्टि की खोज मे भटक गया है ।

 

१३ जनवरी, १९४७

 

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अज्ञानी लोग जो कुछ मानते हैं उसके बावजूद, बाहरी घटनाओं के लिए भीतरी स्पन्दन जिम्मेदार होते हैं ।

 

   आश्रम में रहने वाले अधिकतर लोग बहुत आसानी सें फ जाते हैं कि वे यहां शान्त और सुखकर जीवन बिताने के लिए नहीं, बल्कि साधना करने के लिए हैं । और साधना करने के लिए अपनी भीतरी गतिविधियों पर अमुक अधिकार अनिवार्य है।

 

१ अक्तूबर, १९५९

 

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 केवल वही जो साधना करने के लिए आये हैं और साधना करते हैं, यहां पर सुखी ओर सन्तुष्ट रह सकते हैं । औरों को निरन्तर कष्ट रहते हैं,

 

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क्योंकि उनकी कामनाएं सन्तुष्ट नहीं होती।

 

२ अक्तूबर,१९५९

 

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अगर तुम यहां सुखी रहना चाहते हो तो तुम्हें आत्मपरिपूर्णता का योग करने का संकल्प करके आना चाहिये; क्योंकि अगर तुम उसके लिए नहीं आ रहे, तो तुम्हें हर क्षण ऐसी चीजों से धक्का लगेगा जो तुम्हारी आदतों और सामान्य जीवन के मानदण्डोंका के विपरीत है, और तुम्हारे लिए यहां ठहरना सम्भव न होगा, क्योंकि ये चीजें यहां के काम और संस्था के लिए जरूरी हैं और उन्हें बदला नहीं जा सकता ।

 

३० सितम्बर, १९६०

 

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हम अपने जीवन को आसान और आरामदेह बनाने के लिए यहां नहीं हैं; हम यहां भगवान् को खोजने के लिए, भगवान् बनने के लिए, भगवान् को अभिव्यक्त करने के लिए हैं ।

 

   हमारा क्या होता है यह भगवान् का काम है, हमारी चिन्ता नहीं ।

 

   भगवान् हमारी अपेक्षा ज्यादा अच्छी तरह जानते हैं कि जगत् की और हमारी प्रगति के लिए क्या अच्छा है ।

 

११ अगस्त, १९६७

 

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 यहां समझदारी अनिवार्य है, पूर्णयोग संतुलन, स्थिरता और शांति पर आधारित हैं, दुःख सहते जाने की अस्वस्थ आवश्यकता पर नहीं ।

 

१२ मई, १९६९

 

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 श्रीअरविन्द ने कहा है कि योग में शरीर को भी लेना चाहिये, उसका त्याग या उपेक्षा नहीं । और यहां प्रायः सभी ने यह सोचा कि वे भौतिक में योग कर रहे हैं और वे भौतिक '' आवश्यकताओं '' और कामनाओं के शिकार हो गये ।

 

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  सच पूछो तो, तथाकथित त्यागी-तपस्वियों की अपेक्षा, जो औरों के लिए तिरस्कार, दुर्भावना और घृणा के भाव से भरे होते हैं, उन लोगों की इस अ को मैं ज्यादा पसंद करती हूं ।

 

   इस विषय पर और जो कुछ कहा जा सकता है उसे कहने के लिए समय नहीं है ।

 

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